वार्षिक प्रतियोगिता हेतु कहानी
विधा : कहानी
शीर्षक: उसने कहा था
विषय : चाय की टपरी
दूर ...
घर से चंद दूरी पर मंदिर फिर कॉलेज होते हुए राह में चाय की टपरी ..!
तोताराम की टपरी का नाम कुछ तो था , यों ही प्रसिद्ध नहीं थी वह " हर्षा दी टपरी "।
आधी घास -फूस से बनी और आधे में टीन शेड था , कॉलेज के लड़के -लड़की अक्सर वहां थकान मिटाने आते ।
लम्बे -लम्बे बेंच और उनके आस पास सटी कुर्सियां ,कितने आए गए बैचों की कहानियां कहते थे । मील के पत्थर सी टपरी ,उन कहानियों की भी गवाह थीं, जिनपर कॉलेज के स्टूडेंट्स नाम लिख छोड़ते थे ।
पारूल + संदीप ,या फिर K + G ,रीना+ मोहन, एक दूजे के लिए , प्रेम , मैंने प्यार किया , बगल में दिल या तीर का निशान जरुर चस्पा रहता ,ऐसे अनगिनत अनकहे नाम जिनका वजूद समय के साथ धूमिल पड़ते गए ..।
टपरी के भीतर चाय की केतली और उसमें सुलगते अंगार ऐसी कहानी के गवाह बन रहे थे जिसे भट्टी में बुझता छोड़ दिया था ..!
अंगार भड़क बोले ,"---ओ केतली ..! तुम रोज ही हमारो सर पर बैठ कर सवारी करती हो , तोताराम मजे से कैश बनाता है ,ऐश करता है ,हम दबे कुचले यहीं बुझ जाते हैं ,हमारा वजूद नहीं क्या कहीं ..?"
केतली बोली,"--नहीं अंगार जी ! यदि आप भट्टी में जलने को तैयार ना होंगे तो क्या यह टपरी -टपरी रहेगी ,इसका वजूद ही आपसे है , और तो और चाय -प्रेमी यहां खिंचा चला आता है चाहत में टपरी के,गर्मा -गर्म गप्पें और खबरें यहां के अलावा कहां ,प्रेमी युगलों के दिलकश अंदाज यहां ,सच एक बार जो आता है ना तोताराम की टपरी में यहीं का होके रह जाता है ..हाहाहा ,तुम भी ना ..!"
--",वो सब ठीक है लेकिन, मैं तो जल कर राख हो जाता हूं ना ? तुम तो रोज नए रंग में चढ़ती हो कितने प्रेम से तुमको लोग हलक से उतारते हैं ..! तुम तो सालों से टिकी हो और मैं तो आज दो घंटे में ही नेस्तनाबूद हो जाऊंगा ..!"
",--ठीक है मैं तुम्हे एक प्रेम की पहली कहानी सुनाती हूं ,जान जाओगे प्रेम क्या है ? फिर अफसोस नहीं करोगे ..! समझे मियां अंगार ..!" केतली पानी को खौलाते हुए बोली ..।
अंगार ने जलती हुई तासीर को लाल करते हुए कहा ,"--ठीक है ..! तुम सुनाओ मैं सुनता जाऊंगा ..!"
केतली अंगार सीने में धधक रही थी बोली,"-- सर्द मौसम में माधो और हर्षा की मुलाकात, दोनों एक दूसरे के होकर रह गए ,कॉलेज से घर को आ रहे दोनों ने टपरी की ओर रुख किया, माधो ने कहा,"--चलो हर्षा चलें ,चाय पी लें , कुछ सुकून के पल वहां टपरी में बिता लें ..!"
हर्षा बोली ,"--जरुर जरुर माधो .!"
अक्सर दोनों आते ,अपनी प्रेम भरी बतियों से इस टपरी को महका देते । कितनी सुंदर हर्षा थी यह तो बता नहीं सकती लेकिन, प्रेम
अंधा होता है लगता तो यही था । बस एक बात माधो को सालती रहती थी कि,वह हर्षा के मुकाबले आर्थिक रुप से पीछे है ,हर्षा इन बातों को दरकिनार करती रहती थी ।
उसके मुंह से सुनाई देता,"--नहीं माधो ,तुम इन बातों से चिंतित ना हों मेरे पिता विधायक जरुर हैं लेकिन,जो अपने क्षेत्र के बारे में सोचकर चिंतित हो जाता है क्या वो अपनी बेटी के भविष्य के बारे में नहीं सोचेंगे..?"
यह मुलाकातों का सिलसिला साल भर साल बढ़ता ही रहा कम ना हुआ ..।
प्रगाढ़ प्रेम बंधन की दास्तां कुछ अजब थी, दोनों एक कोने की टेबल में एक दूसरे में खोए रहते थे ..। तो,कभी कोई शेर गढ़ लेते तो कभी एक दूसरे को देख मुस्काते और हां जब हर्षा हंसती तो उसकी दांतों की कतारों में अनवरत हंसी झरती ,उसे माधो एकटक देखता , दृष्टि ही ना हटती उसकी ,ऐसा जादू चल जाता तब ..!
मालूम तो नहीं क्या था ,उसके बाद बस एक बार और दिखाई दिए ,वही अंतिम वर्ष था दोनों का ..!
जब हर्षा ने एक ही प्याली चाय ली दोनों ने उसी से घूंट- घूंट पी और कुछ लिखा भी था ..! दोनों थके थके थे ,माधो और हर्षा ने जाने उस वक्त कुछ लिखा था टेबल पर..! मालूम नहीं था ,क्या था ? शायद ! वही अंतिम याद रही दोनों की शायद ..!
उसने यही पूछा था,"---तुम फॉरन जा रही हो ? तुम पढ़ने जा रही हो ना ? कब आओगी ?"
उसने कहा था,"--माधो ..! इंसान सोचता क्या है और क्या हो जाता है सच ,मैं आगे पढ़ना चाहती हूं ,मेरा स्कॉलरशिप में नाम आया है ,सैट परीक्षा पास की है पापा भी भेजना चाहते हैं ,हो सकेगा मिलेंगे फिर ..राहों में ..! या भूल जाना मुझे ..!"
",--ओहह हर्षा तुम ... मुझे छोड़कर जा रही हो ..!"
",--जिंदगी से नहीं जा रही इंडिया से जा रहीं हूं फिलहाल ..!" वह जल्दी में बोली और टपरी के बाहर आ गई ..।
वह चली गई थी वह देखता ही रह गया ..।
वह जल रहा था , ऐसा लगा हर्षा ने प्रेम के पुष्प को मसल दिया था । जिसे वह सींच रहा था ..!
उसे अपना नाम पसंद ना आया फिर ,जब भी उसे कोई नाम से बुलाता उसे उसकी याद आ जाती बदल दिया उसने वो नाम और टपरी वाला तोताराम हो गया । शाहजहां ने ताज बनवाया उसने हर्षा के नाम की टपरी बनवा डाली और कभी फिर विवाह नहीं किया ..!
और ..आज तक उस शेर को लड़के -लड़कियां अवश्य पढ़ते हैं जो भी उस " हर्षा दी टपरी "में आता है ..!
" इश्क पनाह नहीं ..!रोग ऐसा दवा नहीं..!
दर्द दिखते नहीं ! अश्क छिपते भी नहीं !"
फिर दूसरी लाइन हर्षा की लिखी थी ;
" मायूस रहे हाथ ,आशिकों के घर का कभी नहीं पता,
गुमनामी का जिक्र हुआ ,कहानी बही रफ्ता-रफ्ता ..!"
यही कोई दो साल बाद यही टपरी यही मैं यही वो तोताराम बस ..! यही प्रेम कहानी अपने तोताराम की ..।
उस दिन ...
तोताराम मग्न चाय छान रहा था ,उसने देखा केतली में एक छेद हो गया है और चाय बह रही है ..! अंगार के ऊपर जा गिरी और अंगार बुझते चले जा रहे थे ..।
उसने नौकर मंगत से कहा,"--मंगू ..! यह केतली बहुत पुरानी हो गई है ,बीस साल पहले की ..सोच रहा हूं अब नई ले ही लूं ..जब से यह दुकान खरीदी है ना तब से इसने मेरा साथ दिया है ..! बहुत भाग्यशाली हूं मैं ..! इसे एंटीक पीस में रख लूंगा ..!"
कहकर केतली को भट्टी से उतार दिया ..। केतली चुप थी और अंगार हंस रहे थे यह अद्भुत करिश्मा था ..। वह भी केतली से प्रेम करने लगा था कहीं और अब जलने को तैयार था ..।
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सुनंदा ☺️